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एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है?

arvind kejariwal

आम आदमी पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ‘बजरंगी भाईजान’ का अवतार लेकर दिल्ली में चुनावी वैतरणी तो कुशलतापूर्वक पार कर ली है। इस चुनाव में भाजपा बुरी तरह धाराशयी हुई है, लिहाजा तमाम विपक्षी नेताओं के दिलों को भी ठंडक पहुंची है, लेकिन अब सवाल भी उठ रहा है कि क्या केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-आरएसएस को वैचारिक चुनौती दे पाएंगे? क्योंकि 11 फरवरी को मतगणना के दौरान जब आम आदमी पार्टी को बढ़त मिल रही थी तो पार्टी कार्यालय पर एक पोस्टर नजर आया जिसमें लिखा था ‘राष्ट्र निर्माण के लिए आप से जुड़ें।’ साथ ही उस पर मिस्ड काल देने के लिए एक नंबर भी दिया गया है। इससे स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि अब केजरीवाल दिल्ली, पंजाब, हरियाणा व गोवा जैसे राज्यों के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति में पूरे जोरशोर के साथ कूदने को तैयार हैं। निकट भविष्य में वे दिल्ली के अपने ‘विकास माडल’ और ‘काम की राजनीति’ को लेकर अभियान शुरू कर सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो वे भाजपा के लिए कम, अन्य विपक्षी पार्टियों के लिए ज्यादा बड़ी चुनौती साबित होंगे। इसका ट्रेलर इसी वर्ष बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव में दिखने वाला है, जबकि अगले वर्ष प. बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु व पुडुचेरी जैसे राज्यों में चुनाव होने हैं, जहां आप अपने कदम रख सकती है। मुंबई महानगर पालिका (मनपा) चुनाव लड़ने का एलान तो पार्टी ने अभी से कर दिया है।

यह बात सही है कि बीते एक साल में भाजपा आधा दर्जन राज्यों में चुनाव हारी है, लेकिन पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले उसका वोट प्रतिशत ज्यादा नहीं गिरा है। हरियाणा और झारखंड में तो उसका करीब 2-2 फीसदी वोट बढ़ा था। दिल्ली में तो महज 8 सीटों पर सिमटने के बावजूद उसने 38.51 फीसदी वोट हासिल किए हैं, जो पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में 6.32 फीसदी ज्यादा है। हैरत की बात है कि ऐसा तब हुआ है जब संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही महिलाओं के बारे में भाजपा के जिम्मेदार नेताओं ने बेहद गंदी भाषा का इस्तेमाल किया और सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की भी कोशिश की गई। इतना ही नहीं जेएनयू में हॉस्टल में घुसकर गुंडों ने निहत्थे छात्र-छात्राओं पर हमला किया, जबकि जामिया में पुलिस ने बर्बता की। वोटिंग से ठीक 4 दिन पहले राजधानी के गार्गी कॉलेज की छात्राओं के साथ बदसलूकी की गई। चुनाव के दौरान ऐसा माहौल बना दिया गया कि बेरोजगारी और मंहगाई जैसे मुद्दों पर चर्चा ही नहीं हो सकी। जाहिर है कि इसका असर दूसरी तरफ भी दिखाई पड़ा। धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र व संविधान में विश्वास में रखने वाली जनता भी गोलबंद हुई और बिना किसी भ्रम के आम आदमी पार्टी के पक्ष में शिद्दत के साथ मतदान किया। इस जनादेश को सीएए, प्रस्तावित एनआरसी व बंटवारे की राजनीति के खिलाफ माना जा रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पहले केजरीवाल ने अपनी सरकार के कामकाज के मुद्दे पर चुनाव लड़ने की कोशिश की, लेकिन सच्चाई यह भी है कि अंत में उन्हें भी धर्म का सहारा लेना पड़ा। कुछ लोग इसे चुनावी रणनीति बता रहे हैं तो कुछ का कहना है कि यह उनकी सियासी मजबूरी थी। निजी जीवन में किसी नेता या व्यक्ति की धार्मिक आस्था हो सकती है और इस पर किसी को प्रश्न करने का अधिकार नहीं है, लेकिन जब उसका इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के बतौर किया जाएगा तो उस पर चर्चा होनी स्वाभाविक है। सिर्फ यह कह देने से काम नहीं चलेगा ‘कुछ भी हो, उसने तो अपने विरोधियों को धूल चटा दी है।‘ जब राहुल गांधी के जनेऊ व मंदिर भ्रमण और अखिलेश यादव के अयोध्या में रामायण संग्रहालय व थीम पार्क पर बहस हो सकती है तो केजरीवाल की राजनीति पर बात क्यों नहीं होनी चाहिए? यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अब आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में उतरने का संकेत दे रही है और बुद्धिजीवियों व एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? समाज एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? का एक वर्ग उसे बेहतर विकल्प के रूप में देख रहा है। यह वही वर्ग है, जो मौजूदा विपक्षी पार्टियों से अपनी उम्मीदें खो चुका है।

उल्लेखनीय है कि पिछले विधानसभा चुनाव में जब इमाम अहमद बुखारी ने आम आदमी पार्टी के पक्ष में अपील की थी, तो केजरीवाल ने दो टूक लहजे में उसे खारिज कर दिया था। इसकी सराहना मुस्लिम समेत समाज के सभी वर्गों ने की थी। यह माना गया था कि कम से कम आम आदमी पार्टी राजनीति के साथ धर्म का घालमेल नहीं करेगी और सांप्रदायिकता के खिलाफ भी उसके तेवर उतने ही तीखे होंगे, जितने कि भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। यही कारण है कि तमाम वामपंथी विचारों के लोग भी इससे जुड़ गए, लेकिन इस मोर्चे पर उसने उन्हें निराश किया है। दिल्ली के त्रिलोकपुरी में जब सांप्रदायिक दंगे हुए तो केजरीवाल सरकार और पार्टी दोनों खामोश रहीं। सामाजिक न्याय, आरक्षण व माब लिंचिंग आदि जैसे मुद्दों पर भी उसकी उतनी ही भूमिका दिखी, जितनी कि कांग्रेस या विपक्ष की अन्य मध्यमार्गी पार्टियों की रही एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? है। इतना ही नहीं पिछले 5 साल के दौरान उसे किसी भी जगह भ्रष्टाचार नजर नहीं आया। वर्ष 2014 में राज्य सरकार ने जिन नेताओं व उद्योगपति के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में आपराधिक साजिश व धोखाधड़ी की धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज करवाया था, उसका नतीजा भी शून्य ही रहा। अब चुनाव के दौरान शाहीनबाग जैसे गंभीर मुद्दे पर केजरीवाल मौन रहे और अपने को हनुमान भक्त और देशभक्त साबित करने में जुटे रहे। दूसरी तरफ पार्टी उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया द्वारा शाहीनबाग के पक्ष में दिए गए उनके बयान पर बचाव की मुद्रा में नजर आई। यही कारण है कि कई लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि इस तरह की राजनीति किसी पार्टी को चुनाव तो जितवा सकती है, लेकिन वह सांप्रदायिकता व नफरत के कैंसर को खत्म करने के लिए ‘कीमोथेरेपी’ नहीं बन सकती है। फिलहाल एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार विरोध और गरीबों के लिए कुछ वेलफेयर स्कीमों के दाएरे से आगे निकलने को तैयार नहीं दिख रही है।

वैसे दिल्ली में आम आदमी पार्टी की प्रचंड जीत को लेकर कुछ विपक्षी नेताओं व बुद्धिजीवियों में ठीक उसी तरह की भावना नजर आ रही है, जैसा कि नोटबंदी के समय गरीबों के एक तबके में दिखाई पड़ी थी। उन्हें भी लगा था कि उनके पास तो खोने के लिए कुछ है नहीं, असली बर्बादी तो उनका खून चूसने वाले साहूकार की होगी. बहरहाल राष्ट्रीय राजनीति के अखाड़े में कूदने को तैयार आम आदमी पार्टी सबसे बहले बिहार में अपने ट्रेलर दिखाने वाली है। इसकी एक वजह यह भी है कि चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) अब केजरीवाल के साथ हैं। चंद दिनों पहले मुख्यमंत्री व जद (यू) प्रमुख नीतीश कुमार ने उन्हें अपमानित कर पार्टी से निकाल दिया था। चर्चा है कि राज्य विधानसभा चुनाव में वे इसका हिसाब बराबर करने की ठान चुके हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आम आदमी पार्टी बिहार में किसी के साथ गठबंधन करती है या एकला चलो. का रास्ता अपनाती है। यदि वह अकेले चुनाव लड़ती है तो इसका फाएदा किस पार्टी को होगा? इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इसके बाद अगले साल 5 राज्यों में चुनाव होने हैं, जिनमें प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, केरल में वामपंथी और पुडुचेरी में कांग्रेस की सरकारें है। फिर वर्ष 2022 में भी यूपी, गुजरात, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और मणिपुर में चुनाव होंगे।

Uniparts India IPO Listing: यूनिपार्ट्स के शेयरों की सोमवार को होगी घरेलू मार्केट में एंट्री, लिस्टिंग को लेकर ग्रे मार्केट से मिल रहे ये संकेत

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© Moneycontrol द्वारा प्रदत्त Uniparts India IPO Listing: यूनिपार्ट्स के शेयरों की सोमवार को होगी घरेलू मार्केट में एंट्री, लिस्टिंग को लेकर ग्रे मार्केट से मिल रहे ये संकेत Uniparts India IPO Listing: यूनीपार्ट्स इंडिया के शेयरों की सोमवार 12 दिसंबर को लिस्टिंग है। इसके 836 करोड़ रुपये के आईपीओ को निवेशकों का बेहतर रिस्पांस मिला था और यह इश्यू 25 गुना से अधिक सब्सक्राइब हुआ था। हालांकि ग्रे मार्केट में इसके शेयर कुछ फीके हुए है। जिस दिन आईपीओ खुला था, यानी 28 नवंबर को इसके शेयर 140 रुपये की GMP (ग्रे मार्केट प्रीमियम) पर ट्रेड हो रहे थे लेकिन अब यह 54 रुपये की जीएमपी पर है। हालांकि बाजार के जानकारों के मुताबिक जीएमपी से लिस्टिंग का कोई लेना-देना नहीं है। कंपनी के शेयरों एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? की शुरुआत उसके फंडामेंटल और उस दिन बाजार की परिस्थिति के हिसाब से होती है। IPO News: अगले हफ्ते एक साथ 4 इश्यू खुल रहे हैं, एक है शंकर शर्मा की फेवरेट कंपनी, आप किसमें निवेश करेंगे? Uniparts India IPO के बारे में डिटेल्स यूनीपार्ट्स इंडिया का 836 करोड़ रुपये का आईपीओ पूरी तरह से ऑफर फॉर एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? सेल का था यानी इस इश्यू के तहत कोई भी नया शेयर नहीं जारी हुआ है। यह इश्यू 25.32 गुना सब्सक्राइब हुआ था और खुदरा निवेशकों का आरक्षित हिस्सा महज 4.63 गुना सब्सक्राइब हुआ था। क्वालिफाइड इंस्टीट्यूशनल बॉयर्स (QIB) का हिस्सा 67.14 गुना और नॉन-इंस्टीट्यूशनल बॉयर्स (NII) के लिए आरक्षित हिस्सा 17.86 गुना सब्सक्राइब हुआ था। इस इश्यू के तहत आईपीओ निवेशकों को 577 रुपये के भाव पर शेयर जारी हुए हैं। यह इश्यू सब्सक्रिप्शन के लिए 30 नवंबर से 2 दिसंबर के बीच खुला था। Sula Vineyards IPO: अगले हफ्ते खुलेगा सुला का आईपीओ, मार्केट एक्सपर्ट्स इस कारण उत्साहित, ग्रे मार्केट में भी दिख रहा दम कंपनी के बारे में डिटेल्स इंजीनियर्ड सिस्टम्स और सॉल्यूशंस बनाने वाली यूनिपार्ट्स इंडिया का कारोबार 25 देशों में फैला हुआ है। यह कृषि और CFM (कंस्ट्रक्शन, फॉरेस्ट्री और माइनिंग) के लिए प्रोडक्ट तैयार करती है। इसके प्रोडक्ट की बात करें तो यह 3-प्वाइंट लिंकेज सिस्टम्स (3PL) और प्रेसिशन मशीन्ड पार्ट्स (PMP) के साथ-साथ फैब्रिकेशंस और हाइड्रॉलिक सिलिंडर्स या इसके कंपोनेंट्स इत्यादि बनाती है। इसके लुधियाना में दो, विशाखापत्तनम में एक और नोएडा में दो प्लांट हैं। इसके अलावा कंपनी का एक प्लांट अमेरिका के आयोवा (Iowa) में स्थित है।

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6 राज्यों की 7 विधानसभा सीटों का उपचुनाव : नतीजे देंगे संकेत कि विपक्ष में कितना है दम

छह राज्यों की 7 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के लिए गुरुवार को मतदान संपन्न हो गया। इन चुनावों को नतीजे न सिर्फ यह साबित करेंगे कि क्षेत्रीय दल बीजेपी को मात दे सकते हैं या नहीं, बल्कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर उनकी तैयारी भी सामने आ जाएगी।

प्रतीकात्मक फोटो

नवजीवन डेस्क

छह राज्यों की सात विधानसभा सीटों के उपचुनाव के लिए आज (गुरुवार को) मतदान संपन्न हो गया। इन चुनावों को नतीजे न सिर्फ यह साबित करेंगे कि क्षेत्रीय दल बीजेपी को मात दे सकते हैं या नहीं, बल्कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर उनकी तैयारी भी सामने आ जाएगी।

चुनाव आयोग ने गुरुवार को गुजरात विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान कर दिया। इससे पहले हिमाचल में चुनाव की गहमागहमी जारी है। वहां इसी महीने यानी नवंबर की 12 तारीख को मतदान होना है। इस बीच देश के 6 राज्यों में विधानसभा की 7 सीटों के लिए गुरुवार को मतदान हुआ। इन सीटों के नतीजे 6 नवंबर को आएंगे। इन नतीजों से काफी हद तय यह स्पष्ट हो सकता है कि क्षेत्रीय दल किस तरह की चुनावी तैयारियों में जुटे हैं और क्या वे 2024 में बीजेपी को एकजुट होकर मात दे सकेंगे। साथ ही इन नतीजों से यह भी सामने आ जाएगा कि बीजेपी की बढ़ती राजनीतिक ताकत उपचुनाव में कितना काम कर सकती है।

जिन 7 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुआ है उनमें से तीन सीटों पर पहले बीजेपी, दो पर कांग्रेस और एक एक सीट पर आरजेडी और शिवसेना एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? का कब्जा था। आखिर इन सीटों को लेकर क्यों राजनीतिक गहमागहमी है। आइए बताते हं।

उत्तर प्रदेश (गोला गोकर्णनाथ)

इस सीट से बीजेपी के विधायक अरविंद गिरी चुने गए थे। उनकी मृत्यु के बाद यह सीट खाली हो गई थी। इस सीट को समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई माना जा रहा है। इस सीट पर बीएसपी और कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे, इसलिए सीधा मुकाबला बीजेपी और समाजवादी पार्टी के ही बीच रहा।

उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले कहते हैं कि अगर यहां से समाजवादी पार्टी की जीत होती है तो इस बात द्योतक होगा कि बीजेपी जिले में कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर फेल हुई है और लोगों में उसे लेकर नाराजगी है। लेकिन बीजेपी जीत जाती है तो साफ होगा कि बीजेपी के हिंदुत्व को फिलहाल किसी किस्म की चुनौती नहीं है।

गोला गोकर्णनाथ सीट लखीमपुर खीरी जिले में है, जहां से केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे आशीष मिश्रा पर किसानों को गाड़ी से कुचलने का आरोप है।

Kisan Andolan: दिल्ली-एनसीआर में किसान आंदोलन को विशेषज्ञ ने क्यों कहा 'सस्ती राजनीति'

Kisan Andolan: जानिये- दिल्ली-एनसीआर में किसान आंदोलन को विशेषज्ञ ने क्यों कहा

Kisan Andolan Kisan Andolan वोट बैंक की राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि विरोध खत्म करने के बजाए उसे और भड़काया जाता है। मसला चाहे शाहीन बाग का हो या किसान आंदोलन का यह मुद्दा किसी भी स्तर पर दिल्ली वासियों से जुड़ा नहीं है।

नई दिल्ली [उमेश सहगल]। बार बार बंधक बनती दिल्ली का दुर्भाग्य यह है कि सस्ती राजनीति देश की राजधानी दिल्ली पर भी हावी होती जा रही है। इसे लोकतंत्र का नकारात्मक पक्ष भी कहा जा सकता है। जब जिसका जहां मन करता है, विरोध करने बैठ जाता है। नाम दिया जाता है शांतिपूर्ण प्रदर्शन का और बंधक बना दिया जाता है लाखों लोगों को। वोट बैंक की राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि विरोध खत्म करने के बजाए उसे और भड़काया जाता है। इस समस्या से निजात न तो सहज है और न ही मुमकिन। मसला चाहे शाहीन बाग का हो या किसान आंदोलन का, यह मुद्दा किसी भी स्तर पर दिल्ली वासियों से जुड़ा नहीं है। लेकिन केंद्र सरकार चूंकि दिल्ली में ही बैठती है। इसलिए अपनी आवाज उस तक पहुंचाने के लिए विरोध करने वाले भी दिल्ली में डेरा डाल लेते हैं। एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? यहां उस विरोध को मीडिया की सुर्खियां भी मिल जाती हैं और शासन-प्रशासन का ध्यान भी आकर्षित हो जाता है। लेकिन इस सबमें यह देखा ही नहीं जाता कि उनके विरोध की सफलता कितनों की परेशानी के दम पर सुनिश्चित हो रही है।

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किया जा रहा है एक-दूसरे के अधिकारों का हनन

अब अगर मौजूदा कृषि कानून विरोधी आंदोलन की ही बात करें तो न दिल्ली और न यहां रहने वालों का ही खेतीबाड़ी या कृषि कानूनों से कोई लेना देना है। बावजूद इसके वे इस आंदोलन की आग में झुलस रहे हैं। बार्डर लगभग सील होने से दिल्ली वासी अन्य राज्यों से भी कट गए हैं। इस आंदोलन को शांतिपूर्ण भी कतई नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्दों में जब हम दूसरे के अधिकारों का हनन करने लगते हैं तो वह भी एक तरह की हिंसा ही है। यहां भी ऐसा ही हो रहा है।

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स्वस्थ राजनीतिक का दिख रहा अभाव

विडंबना यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी को नीचा दिखाने के लिए विपक्षी पार्टियां भी ऐसे विरोध प्रदर्शनों में आग में एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? घी डालने का काम करती रहती हैं।अब अगर हम इस पर विचार करें कि इस समस्या से निजात कैसे मिले? तो मेरा मानना है कि लिखित में नियम कायदे सब हैं, लेकिन उन पर अमल इतना सरल नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह सस्ती राजनीति है। राजनीति में आज विरोध के लिए विरोध होता है। विपक्ष जानता और मानता भी होगा कि सत्ता पक्ष का निर्णय जनहित में है, तब भी वह उसके नकारात्मक पहलुओं को ही उजागर करेगा। स्वस्थ राजनीति का अभाव किसी विवाद को सुलझने ही नहीं देता। देखा जाए तो विरोध प्रदर्शनों के लिए जंतर मंतर और रामलीला मैदान निर्धारित हैं, लेकिन वहां प्रदर्शनकारी जाना नहीं चाहते। वह जानते हैं कि एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? जब तक दूसरों के अधिकारों का हनन नहीं करेंगे, उनके जीवन को प्रभावित नहीं करेंगे, उन्हें भी उनके अधिकार नहीं मिलेंगे।

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तुरंत हटाया जाए प्रदर्शनकारियों को

मेरे विचार में दिल्ली को बंधक बनने से बचाने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार को मिलकर काम करना होगा। पुलिस केंद्र के अधीन है जबकि प्रशासन दिल्ली सरकार के अधीन। दोनों सरकारों एमएसीडी संकेतक क्या है और यह इतना विशेष क्यों है? को संयुक्त रूप से यह तय करना होगा कि दिल्ली के किन स्थानों पर कभी भी कोई आंदोलन या प्रदर्शन नहीं हो। तय संख्या से ज्यादा लोग वहां एकत्रित ही न होने दिए जाएं। अगर कभी ऐसी नौबत आए भी तो कोई ढील न देते हुए प्रदर्शनकारियों को तुरंत वहां से खदेड़ दिया जाए।

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मोहरों से नहीं बदलती राजनीति

सुप्रीम कोर्ट के भी यह स्पष्ट निर्देश हैं कि ऐसे किसी भी रास्ते को बाधित नहीं किया जा सकता, जिससे आम जन जीवन अस्त व्यस्त होता हो। दिल्ली सरकार को यहां सोचना होगा कि उसकी बड़ी जिम्मेदारी दिल्ली वासियों के प्रति भी बनती है। अन्य राज्यों के निवासियों को सहूलियत देने की कीमत पर वह दिल्ली के निवासियों को परेशानी में नहीं डाल सकती। अन्य राजनीतिक पार्टियों को भी यह ध्यान रखना होगा कि दिल्ली देश की राजधानी ही नहीे, करीब दो करोड़ लोगों का बसेरा भी है। राजनीति की बिसात पर कुछ हजार प्रदर्शन कारियों को मोहरा बनाकर उनके जीवन को शह-मात के खेल में नहीं बदला जा सकता। राजनीति का एक स्तर होना चाहिए और एक को उसका अधिकार दिलाने के नाम पर दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। पुलिस को भी कानून व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए। राजनीतिक पार्टियों के प्रति नहीं बल्कि संविधान के प्रति जिम्मेदारी होनी चाहिए। सबसे बड़ी बात यह कि प्रदर्शनकारियों को भी आत्म अनुशासन और स्वयं की जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए।

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