आई. ए. रिचर्ड्स: मूल्य सिद्धांत, संप्रेषण सिद्धांत तथा काव्य भाषासिद्धांत

संप्रेषण सिद्धान्त को ‘सम्प्रेषणीयता का सिद्धांत’ भी कहा जाता है। रिचर्ड्स का मानना है कि किसी अन्य व्यक्ति की अनुभूति को अनुभूत करना ही प्रेषणीयता है। विषय की रोचकता व रमणीयता से संप्रेषण में पूर्णता का समावेश होता है। कवि जब स्वयं अपनी अनुभूतियों के साथ एक रस नहीं हो जाता तब तक वे अनुभूतियां प्रेषणीयता का गुण ग्रहण नहीं कर सकती।

संप्रेषण एक स्वाभाविक व्यापार है जिसमें निश्चय ही कवि प्रतिभा स्वत: अज्ञात रूप से कार्य करती है। अनुभूतियों का सहज प्रस्तुतीकरण उस प्रभाव दशा का निर्माण कर देता है जो कवि ने अनुभूत की थी। संप्रेषण की प्रक्रिया में भाषा का विशेष योगदान है। शब्दों के अर्थ बोध एवं बिम्ब ग्रहण से काव्यार्थ का बोध होता है। इस बोध से ही भावों एवं भावात्मक दृष्टि की अनुभूति होती है।

रिचर्ड्स का विचार है की संप्रेषण कला का तात्विक धर्म है। एक कलाकार का अनुभव विशिष्ट और नया होने के कारण उसकी सम्प्रेषणयीता समाज के लिए मूल्यवान है। रचना में जितनी प्रबल और प्रभावशाली सम्प्रेषणयीता होती है वह उतना ही बड़ा कवि या कलाकार होता है।

रिचर्ड्स के अनुसार-

> प्रेषणीयता को प्रभावी बनाने के लिए इन बातों की आवश्यकता होती है।

> कवि या कलाकार की अनुभूति व्यापक और प्रभावशाली होनी चाहिए।

> अनुभूति के क्षणों में आवेगों का व्यवस्थित ढंग से संतुलन होना चाहिए।

> वस्तु या स्थिति के पूर्ण बोध के लिए कवि में जागरूक निरीक्षण शक्ति होनी चाहिए।

> कवि के अनुभव और सामाजिक अनुभवों में तालमेल होना चाहिए। यदि दोनों में अंतर हो तो कल्पना की सहायता से भावों व विचारों का संप्रेषण होना चाहिए।

रिचर्ड्स ने प्रयोग की दृष्टि से भाषा के दो रूप माने हैं:

तथ्यात्मक / वैज्ञानिक भाषा – वैज्ञानिक भाषा में सूचनात्मक, तथ्यात्मक अथवा अभिधात्मक भाषा का प्रयोग होता है।

रागात्मक भाषा– जबकि काव्य की भाषा रागात्मक और भाषा में भावात्मक अर्थ की प्रधानता होती है। ‘रागात्मक’ भाषा का प्रयोग रचनाकार करते हैं। इसमें प्रतीकों, बिंबों और भाव संकेतों को विशेष महत्व इलियट वेव मनोविज्ञान दिया जाता है। यही भाषा कवियों और रचनाकारों की अनुभूति को संप्रेषित करने में समर्थ होती है।

रिचर्ड्स ने “प्रैक्टिकल क्रिटिसिजम” में ‘अर्थ’ के चार प्रकार हैं :

अभिधार्य / वाच्यार्थ (Sense)- यह वस्तु स्थिति से परिचित कराने वाली शक्ति है।

भाव ( Feeling)- वक्ता की वह भावना जो शब्दों के प्रयोग से व्यक्त करना चाहता है।

स्वर / लहजा (Tone)- टोन के माध्यम से लेखक इलियट वेव मनोविज्ञान का श्रोता या पाठक के प्रति दृष्टिकोण प्रकट होता है।

अभिप्राय ­(Intention) – इसके द्वारा वक्ता /लेखक अपना अभिप्राय व्यक्त करता है।

आई. ए. रिचर्ड्स का मूल्य सिद्धांत:

मूल्य सिद्धान्त को कला का मूल्यवादी सिद्धांत / उपयोगितावादी सिद्धान्त भी कहा जाता है।

रिचर्ड्स ने ब्रेडले के- “कला कला के लिए है” सिद्धान्त का खण्डन करते हुए “कला व नीति का परस्पर संबंध” स्वीकार किया है।

रिचर्ड्स के अनुसार-

“एक श्रेष्ठ कला वह है जो मानव सुख की अभिवृद्धि में संलग्न हो, पीड़ितों के उद्धार या हमारी पारस्परिक सहानुभूति के विस्तार से जुड़ी हुई हो, जो हमारे नूतन और पुरातन सत्य का आख्यान करें, जिससे इस भूमि पर हमारी स्थिति और अधिक सुदृढ़ हो, तो वह महान कला होगी।

रिचर्ड्स के अनुसार –

“सृजन के क्षणों में कलाकार सर्वोत्तम स्थिति में होता है, काव्य की उपयोगिता भी यही है कि पाठक भी उस मानसिक स्थिति के निकट पहुंचे। रिचर्ड्स ने इसे ही काव्य का मूल्यवान रूप माना है।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ही “हृदय की रसदशा” कहा है।

विशेष तथ्य:

रिचर्ड्स ने संप्रेषण और भाषा पर विचार किया और वैज्ञानिक भाषा को अलग माना।

सर्वप्रथम अंग्रेजी साहित्य में पहली बार व्यवस्थित और व्यापक रूप से ‘सौंदर्यशास्त्र’ को रिचर्ड्स ने प्रतिस्थापित ने किया।

आई. ए. रिचर्ड्स: मूल्य सिद्धांत, संप्रेषण सिद्धांत तथा काव्य भाषासिद्धांत

संप्रेषण सिद्धान्त को ‘सम्प्रेषणीयता का सिद्धांत’ भी कहा जाता है। रिचर्ड्स का मानना है कि किसी अन्य व्यक्ति की अनुभूति को अनुभूत करना ही प्रेषणीयता है। विषय की रोचकता व रमणीयता से संप्रेषण में पूर्णता का समावेश होता है। कवि जब स्वयं अपनी अनुभूतियों के साथ एक रस नहीं हो जाता तब तक वे अनुभूतियां प्रेषणीयता का गुण ग्रहण नहीं कर सकती।

संप्रेषण एक स्वाभाविक व्यापार है जिसमें निश्चय ही कवि प्रतिभा स्वत: अज्ञात रूप से कार्य करती है। अनुभूतियों का सहज प्रस्तुतीकरण उस प्रभाव दशा का निर्माण कर देता है जो कवि ने अनुभूत की थी। संप्रेषण की प्रक्रिया में भाषा का विशेष योगदान है। शब्दों के अर्थ बोध एवं बिम्ब ग्रहण से काव्यार्थ का बोध होता है। इस बोध से ही भावों एवं भावात्मक दृष्टि की अनुभूति होती है।

रिचर्ड्स का विचार है की संप्रेषण कला का तात्विक धर्म है। एक कलाकार का अनुभव विशिष्ट और नया होने के कारण उसकी सम्प्रेषणयीता समाज के लिए मूल्यवान है। रचना में जितनी प्रबल और प्रभावशाली सम्प्रेषणयीता होती है वह उतना ही बड़ा कवि या कलाकार होता है।

रिचर्ड्स के अनुसार-

> प्रेषणीयता को प्रभावी बनाने के लिए इन बातों की आवश्यकता होती है।

> कवि या कलाकार की अनुभूति व्यापक और प्रभावशाली होनी चाहिए।

> अनुभूति के क्षणों में आवेगों का व्यवस्थित ढंग से संतुलन होना चाहिए।

> वस्तु या स्थिति के पूर्ण बोध के लिए कवि में जागरूक निरीक्षण शक्ति होनी चाहिए।

> कवि के अनुभव और सामाजिक अनुभवों में तालमेल होना चाहिए। यदि दोनों में अंतर हो तो कल्पना की सहायता से भावों व विचारों का संप्रेषण होना चाहिए।

रिचर्ड्स ने प्रयोग की दृष्टि से भाषा के दो रूप माने हैं:

तथ्यात्मक / वैज्ञानिक भाषा – वैज्ञानिक भाषा में सूचनात्मक, तथ्यात्मक अथवा अभिधात्मक भाषा का प्रयोग होता है।

रागात्मक भाषा– जबकि काव्य की भाषा रागात्मक और भाषा में भावात्मक अर्थ की प्रधानता होती है। ‘रागात्मक’ भाषा का प्रयोग रचनाकार करते हैं। इसमें प्रतीकों, बिंबों और भाव संकेतों को विशेष महत्व दिया जाता है। यही भाषा कवियों और रचनाकारों की अनुभूति को संप्रेषित करने में समर्थ होती है।

रिचर्ड्स ने “प्रैक्टिकल क्रिटिसिजम” में ‘अर्थ’ के चार प्रकार हैं :

अभिधार्य / वाच्यार्थ (Sense)- यह वस्तु स्थिति से परिचित कराने वाली शक्ति है।

भाव ( Feeling)- वक्ता की वह भावना जो शब्दों के प्रयोग से व्यक्त करना चाहता है।

स्वर / लहजा (Tone)- टोन के माध्यम से लेखक का श्रोता या पाठक के प्रति दृष्टिकोण प्रकट होता है।

अभिप्राय ­(Intention) – इसके द्वारा वक्ता /लेखक अपना अभिप्राय व्यक्त करता है।

आई. ए. रिचर्ड्स का मूल्य सिद्धांत:

मूल्य सिद्धान्त को कला का मूल्यवादी सिद्धांत / उपयोगितावादी सिद्धान्त भी कहा जाता है।

रिचर्ड्स ने ब्रेडले के- “कला कला के लिए है” सिद्धान्त का खण्डन करते हुए “कला व नीति का परस्पर संबंध” स्वीकार किया है।

रिचर्ड्स के अनुसार-

“एक श्रेष्ठ कला वह है जो मानव सुख की अभिवृद्धि में संलग्न हो, पीड़ितों के उद्धार या हमारी पारस्परिक सहानुभूति के विस्तार से जुड़ी हुई हो, जो हमारे नूतन और इलियट वेव मनोविज्ञान पुरातन सत्य का आख्यान करें, जिससे इस भूमि पर हमारी स्थिति और अधिक सुदृढ़ हो, तो वह महान कला होगी।

रिचर्ड्स के अनुसार –

“सृजन के क्षणों में कलाकार सर्वोत्तम स्थिति में होता है, काव्य की उपयोगिता भी यही है कि पाठक भी उस मानसिक स्थिति के निकट पहुंचे। रिचर्ड्स ने इसे ही काव्य का मूल्यवान रूप माना है।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ही “हृदय की रसदशा” कहा है।

विशेष तथ्य:

रिचर्ड्स ने संप्रेषण और भाषा पर विचार किया और वैज्ञानिक भाषा को अलग माना।

सर्वप्रथम अंग्रेजी साहित्य में पहली बार व्यवस्थित और व्यापक रूप से ‘सौंदर्यशास्त्र’ को रिचर्ड्स ने प्रतिस्थापित ने किया।

फाइबोनैचि रिट्रेसमेंट: अर्थ, स्तर, गणना

फिबनाची रिट्रेसमेंट शब्द का उपयोग हॉरिजॉन्टल लाइन्स को संदर्भित करने के लिए किया जाता है जो ठीक उसी जगह पर संकेत करती हैं जहां रेजिस्टेंस और सपोर्ट की संभावना होती है। यह शब्द फिबनाची अनुक्रम से लिया गया है।

फिबनाची रिट्रेसमेंट स्तर प्रत्येक एक प्रतिशत से जुड़े होते हैं जो इंडिकेट करता है कि किसी दी गई सिक्योरिटी का प्राइस किस हद तक रिट्रेस किया गया है। आंकड़ों को देखते हुए, फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल 23.6%, 38.2%, 61.8% और 78.6% है। इसके अतिरिक्त 50% को फिबनाची अनुपात के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, फिर भी यह भी कार्यरत है।

इस इंडिकेटर की वैल्यू इस तथ्य पर आधारित है कि इसका उपयोग दो प्रमुख प्राइस पॉइंट्स के बीच किया जा सकता है - उदाहरण के लिए, एक उच्च और निम्न। जब इंडिकेटर को नियोजित किया जाता है, तो दोनों पॉइंट्स में से प्रत्येक के बीच के लेवल्स बनाए जाते हैं।

एक घटना में कि स्टॉक की कीमत 100 रुपये से बढ़ जाती है और फिर 23.6 रुपये तक गिर जाती है। ऐसे में, प्राइस 23.6% तक रिट्रेस हो जाता है जो एक फिबोनाची संख्या होगी। यहां यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि फिबनाची संख्याएं हर चीज़ में पाई जाती हैं जैसे प्रकृति, जीवन, फूल और वास्तुकला| इस तथ्य के कारण, कई व्यापारियों की राय है कि ये संख्या वित्तीय बाजारों में भी रेलेवेंट हैं।

फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल्स के इतिहास की खोज

गणितज्ञ लियोनार्डो पिसानो बिगोलो, जिन्हें लियोनार्डो फिबनाची के नाम से जाना जाता था, इन लेवल्स का नाम उनके नाम पर रखा गया है। लेकिन यहां यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि उन्हें फिबनाची अनुक्रम के निर्माण का श्रेय नहीं दिया जाता। ये नंबर वास्तव में भारतीय व्यापारियों द्वारा यूरोपीय व्यापारियों के लिए इंट्रोड्यूस किए गए थे। प्राचीन भारत ने देखा कि ये लेवल 450 और 200 ईसा पूर्व के बीच तैयार किए गए थे।

आचार्य विरहंका को फिबनाची संख्या विकसित करने और 600 ईसवीं में उनके अनुक्रम को निर्धारित करने का श्रेय दिया जाता है। उनकी खोज ने गोपाल और हेमचंद्र जैसे अन्य भारतीय गणितज्ञों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल्स के पीछे के फॉर्मूले और इलियट वेव मनोविज्ञान कैलकुलेशन को समझना

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल्स पर लागू होने वाला कोई फार्मूला नहीं है। इसके बजाय, इन इंडिकेटर्स को चार्ट में जोड़ने के बाद, उपयोगकर्ता को दो बिंदुओं को चुनना होगा। फिर वहां लाइन्स खींची जाती हैं जहाँ उस मूवमेंट का प्रतिशत होता है।

चूंकि फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल्स के लिए कोई फार्मूला नहीं है, इसलिए कुछ भी कैलकुलेट करने की आवश्यकता इलियट वेव मनोविज्ञान नहीं है। वे केवल विचाराधीन प्राइस रेंज के प्रतिशत का उल्लेख करते हैं।

हालांकि, फिबनाची अनुक्रम की उत्पत्ति काफी आकर्षक है और इसे गोल्डन रेश्यो से लिया गया है जो एक संख्या अनुक्रम को संदर्भित करता है| ये अनुक्रम शून्य से शुरू होता है और उसके बाद एक होता है। अनुक्रम में प्रत्येक बाद की संख्या इससे पहले मौजूद दो संख्याओं को जोड़कर प्राप्त की जाती है। यह स्ट्रिंग काउंट अनिश्चित है और निम्न तरीके से शुरू होता है।

0, 1, 1, 2, 3, 5, 8, 13, 21, 34, 55, 89, 144, 233, 377, 610, 987…

नंबर स्ट्रिंग वह जगह है जहां से फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल तैयार किए जाते हैं। एक बार जब यह क्रम शुरू हो जाता है, यदि आप इसमें एक संख्या को अगले एक से विभाजित करते हैं, तो आप 0.618 या 61.8 प्रतिशत पर पहुंचेंगे। यदि आप इसके बजाय किसी संख्या को उसके दायीं ओर दूसरी संख्या से विभाजित करना चुनते हैं, तो आप 0.382 या 38.2 प्रतिशत पर पहुंचेंगे। इन लेवल्स के भीतर प्रत्येक अनुपात इस नंबर स्ट्रिंग से संबंधित एक प्रकार की गणना पर आधारित है। यह 50 प्रतिशत के लिए सही नहीं है क्योंकि इसे फिबनाची संख्या नहीं माना जाता है।

फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल क्या दर्शाता है?

इन लेवल्स का उपयोग प्राइस टारगेट निर्धारित करने, एंट्री आर्डर देने और यह भी पता लगाने के लिए किया जा सकता है कि स्टॉप-लॉस लेवल क्या होना चाहिए। इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए मान लीजिए एक ट्रेडर जो स्टॉक की जांच करता है कि वह केवल 38.2% के लेवल पर वापस जाने के लिए उच्च लेवल पर चला गया है। इसके बाद यह फिर से ऊपर की ओर बढ़ना शुरू कर देता है। इस तथ्य के अनुसार कि उछाल एक फिबनाची लेवल पर हुआ, जबकि एक अपट्रेंड सक्रिय था, व्यापारी स्टॉक खरीदना चुनता है। अब, वह नीचे गिरने वाले रिटर्न के रूप में स्टॉप लॉस को 38.2% के लेवल पर सेट कर सकता है, जो कि रैली के विफल होने का संकेत हो सकता है।

तकनीकी विश्लेषण भी फिबनाची लेवल्स को नियोजित करता है जैसा कि इलियट वेव सिद्धांत और गार्टले पैटर्न से स्पष्ट है। एक बार जब प्राइस मूवमेंट ऊपर या नीचे चला जाता है, तो तकनीकी विश्लेषण के प्रत्येक रूप में पाया जाता है कि उलटफेर कुछ प्रमुख फिबनाची लेवल्स के करीब होता है।

मूविंग एवरेज के विपरीत, फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल स्थिर होते हैं जिससे उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है| इनके साथ, यदि कीमतों में उतार-चढ़ाव का अनुभव होता है, तो व्यापारी और निवेशक विवेकपूर्ण ढंग से अनुमान लगा सकते हैं और प्रतिक्रिया कर सकते हैं।

फिबनाची रिट्रेसमेंट लेवल की बाधाओं को समझना

हालांकि ये लेवल यह इंडीकेट करने में मदद करते हैं कि स्टॉक की कीमत को सपोर्ट या रेजिस्टेंस कहां मिल सकता है| यह नहीं कहा जा सकता है कि कीमत वास्तव में वहीं रुक जाएगी। इस तथ्य के कारण निवेशकों और व्यापारियों को समान रूप से फिबनाची रिट्रेसमेंट रणनीति पर निर्भर होने के बजाय ऑल्टरनेट कन्फर्मेशन सिग्नल्स का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

डिस्क्लेमर: इस ब्लॉग का उद्देश्य है, महज जानकारी प्रदान करना न कि इन्वेस्टमेंट के बारे में कोई सलाह/सुझाव प्रदान करना और न ही किसी स्टॉक को खरीदने -बेचने की सिफारिश करना।

टी.एस.इलियट के निर्वैयथक्तिकता सिद्धांत का विवेचन कीजिए

इलियट ने परम्परा को समझने और अपनाने पर बहुत बल दिया है। उनका विचार था कि साहित्य-रचना में साहित्यकार को आत्मनिष्ठ तत्त्व पर नियंत्रण रखना चाहिए। कविता कवि के तीव्र भावों का सहज उच्छलन नहीं है जैसा कि रोमांटिक कवि वर्ड्सवर्थ मानता था। इलियट ने कला को निर्वैयक्तिक घोषित किया। उनके अनुसार काव्य-रचना इलियट वेव मनोविज्ञान में कवि का मानस केवल माध्यम है, जहाँ कवि के भाव और अनुभव नए-नए समुच्चय में बंधाते रहते हैं।

काव्य-रचना की प्रक्रिया पुनमरण के स्थान पर एकाग्रता की मांग करती है। काव्य एकाग्रता का प्रतिल है। वह लिखते हैं कवि अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं करता, वह केवल माध्यम मात्र है। इसके लिए इलियट ने एक उत्प्रेरक का दृष्यन्त दिया है। आक्सीजन और सल्फर डायोक्साइड के कक्ष में यदि प्लेटिनम का तार डाल दिया जाए तो आक्सीजन और सल्फर डायोक्साइड मिलकर सल्फर एसिड बन जाते हैं, पर प्लेटिनम के तार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न एसिड में प्लेटिनम का कोई चिह दिखाई देता है।

कवि का मन भी प्लेटिनम का तार है। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति कला नहीं है, वरन उनसे पलायन कला है। कलाकार की प्रगति निरन्तर आत्मोत्सर्ग, व्यक्तित्व का निरन्तर निर्वापण है। सम्बन्धी मान्यताओं के विपरीत था, जो काव्य को भावोद्रेक का उच्छलन मानते थे। रोमांटिक युग की धारणा कि काव्य व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है उन्हें मान्य न थी। अतः काव्य का महत्त्व व्यक्तिगत भावों की तीव्रता या महत्ता का नहीं, काव्य-प्रक्रिया की कलात्मक सघनता पर निर्भर करता है, जिसमें विभिका भाव, घुल-मिलकर एक हो जाते हैं।

अत: कलाकार को निरन्तर कलात्मक प्रक्रिया के प्रति आत्म समर्पण करते रहना चाहिए। इलियट का विचार है कि काव्य की प्रेरणा कवि को मानव-स्थिति की सचेतन अनुभूति से प्राप्त होती है। उनके प्रारम्भिक वक्तव्यों से स्पष्ट है कि कवि कविता लिखता नहीं, कविता स्वयं कवि के माध्यम से कागज पर शब्द-विधान के रूप में उतर आती है; जब तक कविता पूरी नहीं हो जाती, तब तक कवि को ज्ञान नहीं होता कि क्या होने जा रहा है।

पर क्या उनके कला की निर्वैयक्तिकता सम्बन्धी से आरम्भिक विचार अन्त तक बने रहे? यीट्स के काव्य के सम्बन्ध में जो विचार उन्होंने प्रकट किए हैं और जो शिकायत की है कि उसके आरम्भिक काव्य में कवि का अपूर्व व्यक्तित्त्व नहीं मिलता, उससे लगता है कि बाद में चलकर इलियट के विचार या तो बदल गए थे जा जैसा कि स्वयं उन्होंने कहा, ‘मैं उस समय अपनी बात ठीक से व्यक्त न कर सका था।’ बाद में निर्वैयक्तिकता के सम्बन्ध में अधिक सहायता देता है। ‘निर्वैयक्तिकता के दो रूप होते हैं-एक वह जो ‘कुशल शिल्पी मात्र’ के लिए प्राकृतिक होती है। दूसरी, वह है, जो प्रौढ़ कलाकार के द्वारा अधिकाधिक उपलब्ध की जाती है। दूसरे प्रकार की निर्वैयक्तिकता उस प्रौढ़ कवि की होती है, जो अपने उत्कट और व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से सामान्य सत्य को व्यक्त करने में समर्थ होता है।’

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि भले ही उनके प्रारम्भिक मत की शब्दावली से लोगों को यह भ्रम हो गया हो कि वह कविता को कुशल शिल्प-विधान मानते थे, परन्तु बाद में चलकर कला की निर्वैयक्तिकता से इलियट का अभिप्राय मात्र कुशल शिल्पी की निर्वैयक्तिकता नहीं है। अब तो वह कला की निर्वैयक्तिकता को प्रौढ़ कवि के निजी अनुभावों की सामान्य अभिव्यक्ति मानते हैं। भारतीय आचार्यों की तरह वह भी यह मानते हैं कि कवि अपने निजी भावों की अभिव्यक्ति कविता में करता इलियट वेव मनोविज्ञान है, पर उसे इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि वे भाव उसके ही नहीं, सर्व-सामान्य के भाव बन जाते हैं।

टी.एस.इलियट के निर्वैयथक्तिकता सिद्धांत का विवेचन कीजिए

इलियट ने परम्परा को समझने और अपनाने पर बहुत बल दिया है। उनका विचार था कि साहित्य-रचना में साहित्यकार को आत्मनिष्ठ तत्त्व पर नियंत्रण रखना चाहिए। कविता कवि के तीव्र भावों का सहज उच्छलन नहीं है जैसा कि रोमांटिक कवि वर्ड्सवर्थ मानता था। इलियट ने कला को निर्वैयक्तिक घोषित किया। उनके अनुसार काव्य-रचना में कवि का मानस केवल माध्यम है, जहाँ कवि के भाव और अनुभव नए-नए समुच्चय में बंधाते रहते हैं।

काव्य-रचना की प्रक्रिया पुनमरण के स्थान पर एकाग्रता की मांग करती है। काव्य एकाग्रता का प्रतिल है। वह लिखते हैं कवि अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं करता, वह केवल माध्यम मात्र है। इसके लिए इलियट ने एक उत्प्रेरक का दृष्यन्त दिया है। आक्सीजन और सल्फर डायोक्साइड के कक्ष में यदि प्लेटिनम का तार डाल दिया जाए तो आक्सीजन और सल्फर डायोक्साइड मिलकर सल्फर एसिड बन जाते हैं, पर प्लेटिनम के तार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न एसिड में प्लेटिनम का कोई चिह दिखाई देता है।

कवि का मन भी प्लेटिनम का तार है। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति कला नहीं है, वरन उनसे पलायन कला है। कलाकार की प्रगति निरन्तर आत्मोत्सर्ग, व्यक्तित्व का निरन्तर निर्वापण है। सम्बन्धी मान्यताओं के विपरीत था, जो काव्य को भावोद्रेक का उच्छलन मानते थे। रोमांटिक इलियट वेव मनोविज्ञान युग की धारणा कि काव्य व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है उन्हें मान्य न थी। अतः काव्य का महत्त्व व्यक्तिगत भावों की तीव्रता या महत्ता का नहीं, काव्य-प्रक्रिया की कलात्मक सघनता पर निर्भर करता है, जिसमें विभिका भाव, घुल-मिलकर एक हो जाते हैं।

अत: कलाकार को निरन्तर कलात्मक प्रक्रिया के प्रति आत्म समर्पण करते रहना चाहिए। इलियट का विचार है कि काव्य की प्रेरणा कवि को मानव-स्थिति की सचेतन अनुभूति से प्राप्त होती है। उनके प्रारम्भिक वक्तव्यों से स्पष्ट है कि कवि कविता लिखता नहीं, कविता स्वयं कवि के माध्यम से कागज पर शब्द-विधान के रूप में उतर आती है; जब तक कविता पूरी नहीं हो जाती, तब तक कवि को ज्ञान नहीं होता कि क्या होने जा रहा है।

पर क्या उनके कला की निर्वैयक्तिकता सम्बन्धी से आरम्भिक विचार अन्त तक बने रहे? यीट्स के काव्य के सम्बन्ध में जो विचार उन्होंने प्रकट किए हैं और जो शिकायत की है कि उसके आरम्भिक काव्य में कवि का अपूर्व व्यक्तित्त्व नहीं मिलता, उससे लगता है कि बाद में चलकर इलियट के विचार या तो बदल गए थे जा जैसा कि स्वयं उन्होंने कहा, ‘मैं उस समय अपनी बात ठीक से व्यक्त न कर सका था।’ बाद में निर्वैयक्तिकता के सम्बन्ध में अधिक सहायता देता है। ‘निर्वैयक्तिकता के दो रूप होते हैं-एक वह जो ‘कुशल शिल्पी मात्र’ के लिए प्राकृतिक होती है। दूसरी, वह है, जो प्रौढ़ कलाकार के द्वारा अधिकाधिक उपलब्ध की जाती है। दूसरे प्रकार की निर्वैयक्तिकता उस प्रौढ़ कवि की होती है, जो अपने उत्कट और व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से सामान्य सत्य को व्यक्त करने में समर्थ होता है।’

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि भले ही उनके प्रारम्भिक मत की शब्दावली से लोगों को यह भ्रम हो गया हो कि वह कविता को कुशल शिल्प-विधान मानते थे, परन्तु बाद में चलकर कला की निर्वैयक्तिकता इलियट वेव मनोविज्ञान से इलियट का अभिप्राय मात्र कुशल शिल्पी की निर्वैयक्तिकता नहीं है। अब तो वह कला की निर्वैयक्तिकता को प्रौढ़ कवि के निजी अनुभावों की सामान्य अभिव्यक्ति मानते हैं। भारतीय आचार्यों की तरह वह भी यह मानते हैं कि कवि अपने निजी भावों की अभिव्यक्ति कविता में करता है, पर उसे इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि वे भाव उसके ही नहीं, सर्व-सामान्य के भाव बन जाते हैं।

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